बुधवार की शाम, शाम के आठ बजे हैं। पोर्टलैंड से घर की फ्लाईट में अभी 40 मिनट हैं बोर हो रहा हूँ चारों और थके यात्रीगण अपनी अपनी फ्लाईट की प्रतीक्षा कर रहें। खाली बैठे ख्याल आया कि कुछ ब्लागिया गिटपिट की जाए।

कुछ दिन पहले मेरी पंसदीदा पुस्तक सिद्धार्थ तीसरी या चौथी बार सुनी थी। जब भी सिद्धार्थ सुनता हूँ कुछ न कुछ नया सीखने को मिलता है। आज कल जिस बात पर ज्ञानदत्त जी की तरह मानसिक हलचल चल रही है वह है आदमी के दिमाग मे चलते रहने वाली गुफ्तगू। बात है दूसरे से बढ़ कर दिखने दिखाने की। अगर मैं गाड़ी चला रहा हूँ तो मैं सब से अच्छा बाकी ऐवें ही हैं। अरे मैं इतनी पुस्तकें पढ़ता हूं आप तो बिल्कुल भी नहीं पढ़ते। अरे मेरी देखिए हम कितने अच्छे मां बाप हैं हमारा बेटा हमेंशा प्रथम आता है। अरे आप ने अभी तक टैक्स नहीं भरा हमने तो दो हफ्ते पहले ही भर दिया था। अच्छा आप इस बार छुट्टियों पर कहीं नहीं जा रहे हम लोग तो मांउट आबू कल ही हो कर आए।

यह नहीं कह रहा कि ऐसा सभी में होता है पर खास कर इलीट कहे जाने वाले या आभिजात्य वर्ग में यह बिमारी काफी पाई जाती है। मैं भी शायद इस बिमारी का किताबों व ज्ञानी होने के भर्म वाले डिपार्टमेंट मे रोगी था। इलाज चल रहा है लगता है छुटकारा मिल जाएगा।

चलिए काउंटर वाले कह रहे हैं कि हमारा विमान आ गया है। लप्पू बाबू बंद करके घर चलते हैं। देखते हैं घर जब ग्यारह बजे पहुंचेगे तो सात महीने कि बिटिया जागती होगी कि सो गई होगी।