मिलना हिन्दी के पहले स्पाइडर मैन से
कुछ दिन पहले सौतन के बेटे (मेरा मोबाइल जिस पर ईमेल आती है) ने आलोक का कम-लिखे-को-ज्यादा समझने वाला संदेश दिया कि “भई हम आपके देश में है, समय मिले तो फोन कीजिएगा”। हमारी खुशी का ठिकाना नहीं कि चलिए आखिरकार आलोक से मिलना हो पाएगा। आलोक भाई ने अंतर्जाल पर हिन्दी का पहला जाल बिछाया था तो इस नजर से वे हैं हिन्दी के पहले स्पाइडर मैन साथ ही वे मेरे कॉलेज के सुपर सीनियर (जिनसे आप कॉलेज में न मिले हों) भी हैं इसलिए बाते भी करने को काफी होंगी।
फोन लगाया तो पता लगा कि वे सिलिकन वैली पधार रहे हैं व गूगल वालों से भी मिलेंगे। भई वाह हम पड़ोस में रहते हैं पर आजतक उन लोगों से हिन्दी के बारे में बात करने नहीं गए। आलोक भाई उनसे मिले भी व उनसे हिन्दी के बारे में चर्चा भी की। इस बारे में आगे लिखूंगा। वहाँ गूगल वालों ने क्या खिलाया यह तो वे स्वयं ही बताएंगे। खैर फोन पर तय हुआ कि हम लोग साथ साथ सैन होज़े से करीब 160 किलोमीटर दूर पोआंइट रियज़ नामक जगह पर जाएंगे। यह एक राष्ट्रीय पार्क है व वहां एक बहुत ही सुंदर लाइटहाउस भी है।
इतवार की सुबह वसुधा व मैं आलोक सपरिवार जिस होटल में वह ठहरे थे वहाँ पहुंच गए। वसुधा व भाभी जी पीछे के सीट पर बैठीं व अपनी – शॉपिंग-पति-रसोई-मेकअप की बातों में ऐसी खोई की लगा वे बरसो से एक दूसरे को जानती हैं। बीच में हिन्दी चिट्ठाकारों की पत्नी होने का गम भी निकलकर आया। आलोक व मैं हाईवे 101 पर बतियाते हुए ड्राइव कर रहे थे। रास्ते में गोलडन गेट ब्रिज जो कि सैन फ्रांसिस्को की शान है भी आया व उसका रंग सुनहरा न हो कर बहुत कुछ जंग जैसे रंग का है तो इस बात पर बहस हो गई कि इसका नाम रस्टी ब्रिज होना चाहिए। मैंने कहा कि फिर कौन इसे देखने आएगा। खैर इस बातचीत में हाइवे वन को मिस कर गए व उससे करीब 15-16 किलोमीटर आगे निकल गए। खैर अपने को कौन सा वहाँ जल्दी थी पहुंचने की। गाड़ी वापिस घुमाई व सौतन के बेटे में चल रहे इंटरनेट से दूबारा से रास्ता मैप किया। मजे की बात है जहां से गाड़ी वापिस की वह एक फयूनरल होम, यानि मुर्दाघर था। हमने चिकाई कि भैया देखो जहां से लोग वापिस नहीं आते वहां से वापिस ले कर जा रहाँ हूँ।
ग्यारह बजे तक हम अपनी मंजिल पर पहुंच गए। लाइट हाउस पहुंचने के लिए 300 से ज्यादा सीढ़ियाँ उतरनी थी यानि की करीब करीब 30 मंजिला इमारत पर चढ़ना व उतरना। जै माता दी कह कर उतरे व वाकई बहुत खूबसूरत जगह थी। उतरते वक्त बादलों से होकर गुजरे। ऊपर जहाँ से उतराई शुरु की थी वहाँ इतनी हवा चलती थी कि लगभग सभी पेड़ एक तरफ झुक चुके थे। रास्ते में पहली बार लाल रंग की काई भी देखी। वहाँ लोगों से पता चला कि किस्मत अच्छी हो तो लाइटहाउस से कई बार व्हेल मछलियाँ भी नजर आती हैं।
इसके बात वापिसी की यात्रा शुरु हुई। रास्ते में हिन्दी व जालजगत पर बातें हुई। पहले गूगल के बारे में। आलोक ने बताया कि वहां से पता चला कि लोग अंग्रेजी शब्दों (मेरे ख्याल से यहाँ उन्नत देशों से आने वाली खोजों की बात होनी चाहिए) में करोड़ों खोजे करते हैं पर बाकी सभी अन्य भाषायों कि मिला कर भी 50000 से ज्यादा खोजे नहीं होती। अगर इस तरह से सोचें तो जितना गूगल ने हिन्दी के लिए किया उतना और किसी भी कम्पनी ने नहीं किया। फिर बात हुई हिन्दी में आ रहे नए एग्र
ीगेटर व नए सजालों के बारे में। जिस पर हम दोनों का ही मानना है कि अभी हमारी कम्यूनटी इतनी छोटी है कि जितनी नई चीजे आए उतना अच्छा। हमें इसे जीरो सम गेम नहीं समझना चाहिए। कि अगर किसी एक का फायदा हो रहा है तो पक्का दूसरे का नुकसान होगा। हम दोनों ने माना कि जितने नए टूल / सजाल आएंगे पाई बंटेगी नहीं ज्यादा बड़ी होगी। फिर आलोक ने अपने डीमोज का संपादक होने से संबधित अनुभवों के बारे में बताया।
यही बातें करते रास्ता बढ़िया कट रहा था कि मेरी श्रीमती जी को मोशन सिकनेस हो गई व उन्होंने कहा कि वे आगे वाली सीट पर आ कर बैठेंगी। इस तरह से हमारी तकनीकी बातों को ब्रेक मिली व आलोक जी पिछली सीट पर चले गए। अगले दस मिनट में कार में मेरे अलावा सभी लोग सो गए व मैंने नींद भगाने के लिए गाने गाने शुरु कर दिए। अच्छी बात है कि लोग गहरी नींद में थे नहीं तो वहीं गाड़ी रुकवा कर उतर जाते कि भाई इतना बेसुरा सुनने से अच्छा है कि पैदल चला जाए। करीब तीन बजे हम लोग वापिस सिलिकन वैली पहुंचे व सीधा अम्बर कैफे में जाकर आलू-पूड़ी, छोले भटूरे, बैंगन-टमाटर का पिज्जा व सीख कबाब ऑडर किए व एक बढ़िया सफर का अंत हुआ।
जाते जाते पोआंइट रियज़ के लाइटहाउस की फोटू। यह धूंधली नहीं है बल्कि बादलों से घिरी है।