बात पैसे की नहीं नव-सृजन की थी
पिछली प्रविष्टि की मिली टिप्पणियों से लगता है कि मैं जो बात कहना चाहता था कहीं पैसे और कम्पयूटर में डूब कर रह गई। गलती पूरी तरह से मेरी ही थी कि अपनी बात कहने के लिए कम्पयूटर इंडस्ट्री का सहारा लिया। राजीव भाई ने अपनी प्रतिक्रिया में माँग व पूर्ति तथा नव-सृजन हर जगह की बात की जिस मैं पूरी तरह से सहमत हूँ।
अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए यह कहना चाहता हूँ कि इस अति प्रतिस्पर्धा के युग में जहाँ हर पुराना तरीका एक नई नजर से देखा जा रहा है आगे बढ़ते रहने के लिए नव-सृजन ही मदद कर सकता है। उदाहरण के तौर पर देखिए पड़ोस के लाला की दूकान को नए खुलते बिग-बाजार से खतरा है, अमरीका में डैल्फी में काम करने वाले गाड़ी के पुरजे बनाने वालों को भारत स्थित पुरजे वालों से खतरा है, वहीं कपूरथला में किरपान बनाने वाले चाइना की किरपानों से जूझ रहे हैं। किस ने सोचा था। अब यदि इसमें आप का धंधा भी शामिल है तो आप या तो शिकायत कर सकते हैं कि बदलते हालातों ने आपकी हालत बदल दी या फिर कुछ नया सोच कर कुछ नया कर सकते हैं। बस यहीं नव-सृजन करने वाले फायदे में हैं।
आखिर में सुरेश जी ने अपनी बात कही
“भाई पैसे ज्यादा मिलते हैं तभी तो इन्हीं लोगों की बदौलत अस्सी प्रतिशत भारत महँगा गेहूँ खा रहा है… हमारे मालवा का गेहूँ ११०० रुपये क्विंटल में कम्प्यूटर वाला हँसकर ले लेगा, लेकिन यहीं का गेहूँ हम जैसे लोग ११०० रुपये में कहाँ से खरीदेंगे और कितना खरीदेंगे… बडे-बडे शॉपिंग माल में हमारे लिये कुछ नहीं है… सब software वालों के लिये है… रिलायंस और भारती आकर हमारे मुँह से दाल और सब्जी भी छीनने वाले हैं, क्योंकि उन्हें software वाले मुँहमाँगे पैसे देने को तैयार हैं…हर चीज महंगी और महंगी होती जा रही है चाहे उसे खरीदने की ताकत रखने वाले महज कुछ प्रतिशत ही हों…”
बात तो वाकई चिन्ताजनक है पर यह बढ़ती महंगाई एक बढ़ती हुई अर्थव्यव्सथा में आ ही जाती है। लेकिन यह केवल सॉफ्टवेयर, कॉल सेंटर वालों की वजह से है शोध का विषय है। शायद राजीव जी इस बारे में कुछ कहना चाहें।
छवि साभार shiv379 @ devianart