अनुगूँज - १५ वर्षगाँठ स्पैशलफिल्में देखने का शगल अंतर्राष्ट्रीय है। दुनिया में हर जगह फिल्में देखी जाती हैं। वहाँ भी जहां की फिल्म इंडस्ट्री अपने चरम पर है और वहां भी जहाँ फिल्में नहीं के बराबर बनती हैं। लेकिन एक बात पक्की है हर जगह फिल्मों के लिए लोगों का जज्बा बहुत भंयकर है। लोगो को फिल्मों के बारे में बात करनें में भी बहुत मजा आता है। जरा ब्लॉगजगत में देखिए कितने ही ब्लॉग इसकी गाथा गाते मिलेंगे। चाहे रमण जी की नपी तुली समीक्षाएं हो या फिर स्वामी जी की भभकती भाप वाली, आप फिल्मों के बारें मे पढ़ता पाएंगे और जब कभी भी मेटरिक्स जैसी फिल्में आती हैं तो अंतर्जाल उस की कहानियां से अटा पाया जाता है
तो यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि हम फिल्में देखते क्यों है? वैसे देखा जाए तो फिल्म, पुराने जमाने के कथा वाचन व बाद में नौटंकी का ही परिष्कृत रुप है। कथा या कहानी सुनाना श्रोताओं को सपनों की दुनिया में ले जाने के बराबर ही है। सफल कथा भी वही होती है जिसमें रस आए। सामान्य तौर पर कह सकते हैं कि आदमी की पलायनवादी प्रवृत्ति से इसका जन्म होता है। आदमी कुछ समय के लिए अपने आस पास का सब कुछ भूलकर चंद लम्हे फंतासी की दुनिया में बिताना चाहता है। अब यह दुनिया चंद्रकांता की तरह मायावी भी हो सकती है या फिर ब्लैक की तरह क्रूर सत्य। यही कारण है कि एक वर्ग शतरंज के खिलाड़ी, कम्पनी, शिंडलर्स लिस्ट जैसी फिल्में पसंद करता है वहीं दूसरी और आप देखेंगे की लोग गोविंदा स्टाईल हल्की फुल्की हास्य व्यगंय वाली फिल्में देखना चाहते हैं। मर्जी सभी की अपनी अपनी है। पर यह गलत होगा कि एक वर्ग कहे कि हल्की फुलकी व्यंग्य फिल्में देखने वाले व्यक्ति बेकार हैं या फिर सीरियस फिल्में देखने वालों के बारे में कहें कि ये लोग तो सिरफिरे हैं।

हम सभी पलायनवाद के चलते ही फिल्में देखते हैं। रंगीले पर्दे की कृत्रिम दुनिया में कहानी देखते वक्त आनंद आता है। अब यह हंसी का हो या वीर रस, करुणा या रहस्य का होता तो रस ही है।

कई बार तो कुछ फिल्में आती हैं जो कि फिल्मकार केवल अपनी कला की अभिव्यक्ति के लिए बनाते हैं। पैरलल सिनेमा कुछ कुछ इसी वजह से ही है। ये बात और है कि ऐसे फिल्मकारों को चाहने वाले भी मिल जाते हैं। इस लिए फिल्म के बारे में समीक्षा देने से पहले यह भी देखना चाहिए कि कथाकार ने फिल्म किस के लिए बनाई थी। अब यश चौपड़ा जी की फैक्टरी में, उनकी नजरों में जो आदर्श परिवार, रिश्ते, बंधन होते हैं उसी के ऊपर फिल्में बनती हैं जिसे की जनता खूब दिल लगा कर देखती है। ये जनता को सपने दिखाने वाली बात है और जनता भी जानती है पर दिल के बहलाने को गालिब ये ख्याल अच्छा है वाली बात है। वहीं राम गोपाल वर्मा ने कसम खा रखी है कि वे जनता को हर फिल्म से एक नई कहानी सुनाएगें व इसी पर एक्सपेरीमेंट करते रहते हैं।

तो आखिर में यह तो निश्चित हैं कि हम सभी पलायनवाद के चलते ही फिल्में देखते हैं। रंगीले पर्दे की कृत्रिम दुनिया में कहानी देखते वक्त आनंद आता है। अब यह हंसी का हो या वीर रस, करुणा या रहस्य का होता तो रस ही है।