लो बुन गई पहली कहानी
अब चूंकि हम अक्षरग्राम पर तो राम राम कह चुके थे। इसलिए वहाँ तो हमें किसी ने नई प्रविष्टि बनाने नहीं दी। पर फुरसतिया जी द्मारा बुनो कहानी में पहली कहानी का अंतिम अंक पढ़के छपास पीड़ा ऐसी जागी कि हाँ भाई पर आके त्तकाल निवारण करना पड़ा।
अनूप जी ने कहानी बड़े ही सही तरीके से अतुल जी द्मारा स्थापित मादकता वाले माहौल से संभाल कर बढ़िया अंजाम दिया है। कायल तो हुए हम इस बाते के कि कानपुर में बैठे उन्होंने यहाँ बैठे देसी भाईयों के मन की थाह ली। यह बात सन 2001 के जून जूलाई में मेरे दिमाग में भी थी
तुम्हारी सोच तो कभी इतनी पलायनवादी नहीं रही. हम जायेंगे यहां से घर पर मजबूरी में नहीं.
छाया के बदलते भावों का तो जैसे एकदम छायांकन ही कर दिया है
अचानक छाया की नजर विभा पर पड़ी.उसके शब्द ठहर से गये.मुंह आश्चर्य से खुला रह गया.क्षणभर के लिये उसके चेहरे के भाव बदले.असमंजस आया पर फिर तुरंत वह आश्चर्य मिश्रित उत्साह से बोली
यह बात कहने का हक तो शायद सिर्फ कानपुर वालों को है
उसका पूरा शरीर कान हो गया.
पर यह पढ़के आश्चर्य हूआ कि क्या इतनी परिपक्व सोच लड़कियों की हो सकती है। मुझे तो लगता है कि पति के पुराने किस्से सुन कर पतनिया मरखनी गाय न बन जाए। पर होती ही होंगी
तुम्हारी क्लासफेलो रही होगी.दोस्त हो सकती है या फिर नई-नई आई जवानी की महबूबा.जिससे तुमने खूब ढेर सारी साथ जीने मरने की फिल्मी मुहब्बत वाली कसमें खायीं होंगी.आखिर तुम एस शहर ,कस्बे में रहे.लेकिन अब वह सब कुछ पीछे छूट गया.कोई प्रासंगकिता नहीं उसकी सिवा एक खूबसूरत अहसास के. एहसास इसीलिये खूबसूरत होते क्योंकि हम उनका होना नहीं देख पाते.
और आखिर में कहानी का सुंदर मोड़ कि आदमी बिना मुस्कराए नहीं रह सकता
तो नींद के लाने के लिये अपने दस सालों से आजमाये नुख्से को क्यों नहीं आजमाते
जीतेन्द्र, अतुल व अनूप जी को एक बढ़िया कहानी सुनाने कि लिए शुक्रिया।