मेरा चमत्कारी अनुभव छठी अनुगूँज
रमण जी ने चमत्कारी अनुभव की गूँज कराके फिर से विचारों के दो राहे पर ला पटका है। एक तरफ विज्ञान-आभियांत्रिकी में शिक्षित दिमाग यह मानने को तैयार नहीं है कि ऐसी कोई चीज हो सकती है तो दूसरी तरफ दाँया मस्तिषक कहता है कि मूढ़ अगर तेरी सोच में कुछ बात नहीं बैठती तो जरुरी नहीं कि सत्य न हो। भाग्य कहें या दुर्भाग्य अपने साथ ऐसी बात कभी हुई नहीं। तो इसका ये मतलब नहीं कि भाई कुछ लिखेगा नहीं। आप को एक कथा सुनाते हैं। सुनी हो तो पढ़के माफ कर देना।
बात उन दिनों की है जब हम ग्यारहवी कक्षा में थे। माँ बाप ने आठवीं के बाद से होस्टल में डाल दिया था इसलिए रहते भी वहीं थे। होस्टल व स्कूल दोनों ही पहाड़ी इलाके में थे। हमउमर लड़कों के चलते खूब शरारते होती थी। कभी होस्टल की दिवार फाँद कर भाग जाना और शाम ढले छुपते छुपाते आना तो कभी किसी लड़के का सामान गायब करके उसे परेशान करना।
स्कूल में खेल कूद का भी खूब जोर था। हमतो खैर पढ़ाकू बच्चे चश्मा पहलवान थे पर कुछ लड़के काफी तेज थे। किसी इतफाक से अपने यहाँ कुश्ती प्रसिद्द थी। साल में छह सात लड़के राष्ट्रीय स्तर भी कुश्ती खेल आए थे। इसके कारण स्कूल वालों ने बढ़िया व्यायाम शाला बनवा दी थी। एक नया कोच भी रखा गया। जो कि खुद एशियाई खेलों में स्वर्ण पदक जीत चुका था। नए कोच के आने से कुश्ती वाले लड़के तरह तरह के करतब करते पाए जाते। कभी मिट्टी एक कोने से खोद कर दूसरी जगह लगा रहे होते तो कभी भागते भागते बीच में रुक कर बैठक लगा रहे होते। ऐसे ही एक दिन हम लोग शाम को खेल रहे थे कि खबर आई कि जिम में एक लड़के की कुश्ती में गलत दाव पड़कर गर्दन की डिस्क टूटने से मौत हो गई है। बुरी खबर थी, होस्टल में वैसे इतना भाईचारा होता है, मूड बहुत दिनों तक खराब रहा। स्कूल वालों ने अपनी तरफ से स्कूल के पीछे के बाग में लड़के के नाम का संगमरमर का चबूतरा बनवा दिया।
कुछ दिन बीते सर्दियां भी आ गई, पहाड़ों में वैसे सर्दी ज्यादा होती है। एक बात फैलनी शुरु हो गई कि बाग में अंधेरा पड़ते ही चबूतरे के पास मृत लड़के की आत्मा आती है। बाग में लोग सर्दियों की वजह से वैसे ही कम जाते थे इस बात के चलते लोग बिल्कुल ही जाना बंद हो गए। एक दिन रात में हम सभी सर्दी से ठिठुरते शालें लपेटे बाते कर रहे थे कि इसी बात पर चर्चा शुरु हो गई। कुछ मानने वाले थे और कुछ न मानने वाले। अब चाहे मैं चश्म-पढ़ाकू था पर विचार रखनें में बहुत मुखर था। हम भी अड़ गए कि ऐसा कुछ नहीं होता। तो लोगों ने कहा कि ऐसी बात है तो रात के अंधेरे में वहाँ पर अकेले जाकर दिखाओ। हमें लगा कि फंस गए बेटा। मानना न मानना अलग बात होती है पर अंधेरे का डर अलग बात होती है। लड़कों ने इसे इज्जत का सवाल बना दिया। मानना पड़ा तय हुआ कि सुबूत के तौर पर चबूतरे के पास कील गाढ़ कर आनी थी।
वीर बालक बनते हुए अपुन भी अंदर से डरते डरते बाग की ओर बढ़ लिए। बाग में पहला कदम रखा और घुप्प अंधेरा देख कर सिट्टी गुम हो गई। ऊपर से चलते हुए पैरों के नीचे आ रहे सूखे पत्तों की चरमराहट अजीब डरावना माहौल पैदा कर रही थी। राम राम करते चबूतरे तक पहूँचे व मन में सोचा कि चाहे इन बातों में न मानूं पर डींगे नहीं हाकूँगा। कील गाढ़ने के लिए झुके तो हथोड़ी हाथ से छूट गई। अंधकार में छन्न की आवाज हूई। ठंड से ठिठुरते हाथ से शाल संभालते हूऐ हथोड़ी उठाई और हनुमान का नाम ले कर कील जमीन में ठोक दी। काम पूरा हो चुका था और हम मुड़े और मुड़ कर जाने लगे। पर यह क्या लगा किसी ने पीछे से शाल पकड़ कर रोक लिया हो। अपनी तो पतली हो गई। लगा कि आज तो प्राण गए। आव देखा न ताव गोली की तरह होस्टल की तरफ भाग लिए। हाँफते हाँफते वापिस पहुंचे तो लड़को ने पूछा कि गाड़ आए क्या हमने कहा कि कील तो लगा आए पर हो सकता है आप की बात सच्ची हो। अगले दिन सुबह खबर मिली कि बाग में एक कील से ज़मीन में ठुकी शाल मिली है।