चंचल अमरीकी डॉलर
कहते हैं धन की देवी लक्ष्मी जी चंचल हैं। मिर्ची सेठ के सेठ ने कैश फ्लो भी रोज देखा है। भैया व चाचा लोग रोज आस पास के शहरों के दुकानदारों जिन्हें मिर्चें बेची होती थी से उग्राही कर के लाते थे व हफ्ते के आखिर में जिन और बड़े व्यापारियों से हमने मिर्चें खरीदी होती थी पैसा भेज देते थे। ऋण की कहानी भी थोड़ी सी होती थी कि छोटे दुकानदार प्रायः माल मिलने के बीस तीस दिन में पैसा देते थे जबकि हम लोग अपने से ऊपर वालों को हफ्ते के अंदर अंदर चुका देते थे। आसान सा हिसाब था आज भी ऐसे ही चलता है। हम सभी यानि मैं व मेरे चाचा के लड़के बड़े बड़े होते होते समझ चुके थे। इससे फायदा यह हुआ था कि हर धंधे का कैश-फ्लो समझने की आदत पड़ गई व लक्ष्मी की चंचल प्रवृत्ति भी का अर्थ भी समझ में आ गया।
जब अमरीका आया तो कुछ समय तो यहाँ की अलग संस्कृति, कारें, सड़कें, मॉलें, व थीम पार्कों को देखते हुए गुजर गया। हर चीज पर लेबल खास कर मॉल में मर्दाना कमीजों पर लेबल देखते तो पाते कि यह तो बाहर बना है। मतलब मेड इन चाइना, मेड इन इंडिया, मेज इन थाईलैंड इत्यादि। धीरे धीरे पाया कि लगभग हर चीज जैसे कि खिलौने, लोहा लंगर का सामान यानि ताले, चाबियाँ, चाकू, दरवाजों कै हथ्थे इत्यादि चीन से बन कर आ रहे हैं। इल्कट्रॉनिक्स का सामान अपवाद नहीं था। कहीं तो पढ़ा था कि यदि आप $200 का आई-पॉड खरीदते हैं तो उसमें से करीब $180 चीन चले जाते हैं। ऐसे ही यहाँ अमीर मार्किट में जर्मन कारें जैसे मर्सिडीज़, बी एम डब्लयू और टिकाउ यानि वेल्यू मार्किट में जापानी कारें जैसे होन्डा, टोयोटा प्रसिद्ध हैं। देसी बंधुओं में तो होन्डा अकोर्ड को हिन्दू अकोर्ड ही कहते हैं।
इस सब को देखते हुए मन में प्रश्न उठता था कि यहाँ सब कुछ तो बाहर से आता है तो यहाँ का कैश-फ्लो तो अजीब होगा, आ ज्यादा रहा है, जा कम रहा है। यानि कि वित्त-भाषा में बोले तो ट्रेड-डेफिसिट। कुछ कुछ समझ में आना भी शुरु हो गया है। पर स्थिति बड़ी मजेदार है। जरा गौर फरमाइए अमरीका में उपभोक्ता बहुत हैं व बहुत ज्यादा खर्चा होता है। सामान सारा बाहर बनता है। इसलिए पैसा बाहर जाता है। अमरीका से भी जहाज, सॉफ्टवेयर, और हालीवुड बाहर जाता है पर आने वाला पैसा जाने वाले पैसे से कम होता है। जैसे कि
“One-third of the widening of the deficit is the oil bill, and aircraft sales explains most of the rest,” said Carl Weinberg, chief global economist at High Frequency Economics, a research firm.
साथ ही [कहते हैं धन की देवी लक्ष्मी जी चंचल हैं। मिर्ची सेठ के सेठ ने कैश फ्लो भी रोज देखा है। भैया व चाचा लोग रोज आस पास के शहरों के दुकानदारों जिन्हें मिर्चें बेची होती थी से उग्राही कर के लाते थे व हफ्ते के आखिर में जिन और बड़े व्यापारियों से हमने मिर्चें खरीदी होती थी पैसा भेज देते थे। ऋण की कहानी भी थोड़ी सी होती थी कि छोटे दुकानदार प्रायः माल मिलने के बीस तीस दिन में पैसा देते थे जबकि हम लोग अपने से ऊपर वालों को हफ्ते के अंदर अंदर चुका देते थे। आसान सा हिसाब था आज भी ऐसे ही चलता है। हम सभी यानि मैं व मेरे चाचा के लड़के बड़े बड़े होते होते समझ चुके थे। इससे फायदा यह हुआ था कि हर धंधे का कैश-फ्लो समझने की आदत पड़ गई व लक्ष्मी की चंचल प्रवृत्ति भी का अर्थ भी समझ में आ गया।
जब अमरीका आया तो कुछ समय तो यहाँ की अलग संस्कृति, कारें, सड़कें, मॉलें, व थीम पार्कों को देखते हुए गुजर गया। हर चीज पर लेबल खास कर मॉल में मर्दाना कमीजों पर लेबल देखते तो पाते कि यह तो बाहर बना है। मतलब मेड इन चाइना, मेड इन इंडिया, मेज इन थाईलैंड इत्यादि। धीरे धीरे पाया कि लगभग हर चीज जैसे कि खिलौने, लोहा लंगर का सामान यानि ताले, चाबियाँ, चाकू, दरवाजों कै हथ्थे इत्यादि चीन से बन कर आ रहे हैं। इल्कट्रॉनिक्स का सामान अपवाद नहीं था। कहीं तो पढ़ा था कि यदि आप $200 का आई-पॉड खरीदते हैं तो उसमें से करीब $180 चीन चले जाते हैं। ऐसे ही यहाँ अमीर मार्किट में जर्मन कारें जैसे मर्सिडीज़, बी एम डब्लयू और टिकाउ यानि वेल्यू मार्किट में जापानी कारें जैसे होन्डा, टोयोटा प्रसिद्ध हैं। देसी बंधुओं में तो होन्डा अकोर्ड को हिन्दू अकोर्ड ही कहते हैं।
इस सब को देखते हुए मन में प्रश्न उठता था कि यहाँ सब कुछ तो बाहर से आता है तो यहाँ का कैश-फ्लो तो अजीब होगा, आ ज्यादा रहा है, जा कम रहा है। यानि कि वित्त-भाषा में बोले तो ट्रेड-डेफिसिट। कुछ कुछ समझ में आना भी शुरु हो गया है। पर स्थिति बड़ी मजेदार है। जरा गौर फरमाइए अमरीका में उपभोक्ता बहुत हैं व बहुत ज्यादा खर्चा होता है। सामान सारा बाहर बनता है। इसलिए पैसा बाहर जाता है। अमरीका से भी जहाज, सॉफ्टवेयर, और हालीवुड बाहर जाता है पर आने वाला पैसा जाने वाले पैसे से कम होता है। जैसे कि
“One-third of the widening of the deficit is the oil bill, and aircraft sales explains most of the rest,” said Carl Weinberg, chief global economist at High Frequency Economics, a research firm.
साथ ही](http://www.bea.doc.gov/bea/newsrelarchive/2005/trad0905_fax.pdf) पर भी नजर डालें। तो अब ज्यादा डॉलर बाहर गए। पर ऐसे तो यहाँ पैसा कम हो जाएगा। पर ऐसा नहीं है। होता यह है कि चीन वाले यहाँ के बहुत सारे ट्रेज़री बाण्ड खरीद लेते है। बॉण्ड एक किस्म का ऋण है जो कि कोई मार्किट से उठाता है। इस तरह से डॉलर वापिस आ जाते हैं। अब सोलह आने की बात यह है कि चीन कब तक यहाँ का ऋण खरीदता रहेगा। सभी इस का उत्तर ढूंढना चाहते हैं। चीन को चलाने वाले भी बहुत समझदार लोग हैं कुछ तो सोचा होगा। पर उनकी मजबूरी है कि वे जो बनाते है खपता यहाँ अमरीका में हैं। यहाँ पर लोग खरीदगें नहीं तो वहाँ फैक्टरियाँ बंद होंगी क्या करें सांप छूंछदर वालि स्थिति है।
किसी को हल पता हो तो जरुर बतावें। धंधे की बात है।