अति आदर्शवाद अनुगूँज १६
स्वामी जी की अति-आदर्शवाद अनुगूँज प्रविष्टि में दी गई छवि जिस में कच्ची मिट्टी से कुम्हार घड़ा बना रहा है बड़ी ही उपयुक्त है। कच्ची मिट्टी यानि बच्चे जो कि भविष्य हैं का बनना इस बात पर निर्भर करता है कि कुम्हार रुपी माँ बाप उसे कैसे ढालते हैं। उपमा सही बन पड़ी है, इस बात में दम भी बहुत है। पर मानव की संतान और मटके में फर्क भी है। सबसे बड़ा कि मटका जड़ है व मानव चेतन है। मटका एक बार बन गया तो वह उसकी नियति है पर मानव समय के साथ साथ बदलता रहता है। लेकिन इस बात में कोई शक नहीं कि प्रारम्भिक शिक्षा व जिस ढांचे में आप डाल दिए जाते हो, आपके भविष्य की दिशा को निर्धारित करने में बहुत प्रभावी होता है।
तो क्या यह जरुरी है कि जो चीजे आचार व्यवहार आगे आकर मनुष्य की व्यक्तिगत व आर्थिक उन्नति के लिए आवश्यक हैं शुरु से ही सिखाई जाए? यह आचार व्यवहार क्या हैं? यह बात तो पक्की है कि आप अपने बच्चों को सही बातें ही सीखाना चाहोगे। कुछ बातें सार्वभौमिक सत्य होती हैं। जैसे कि किसी की अकारण हत्या करना गलत है, चोरी करना ठीक नहीं है और कुछ सामान्य व्यवहार में प्रयोग होने वाली बातें जैसे कि झूठ बोलना गलत है, किसी को तंग करना अच्छी नहीं इत्यादि। सार्वभौमिक सत्य हमेंशा से हर समाज में सत्य रही हैं। हालांकि आप किन कारणों में हत्या गलत नहीं हैं पर चर्चा कर सकते हैं। पर हम अभी के लिए यह चर्चा फिर कभी के लिए रखते हैं। पर सामान्य व्यवहार की सीखों को हम रोजमर्रा की जिंदगी में ताक पर रख कर अपने फायदे की बात करते हैं। तो क्या बच्चों के ये बाते सीखाना बेमानी है? नहीं कभी नहीं। बच्चों को आप सदियों से सही माने जाने वाली बातें ही सीखाओगे। समय के साथ जब उनमें अच्छे बुरे को पहचानने की क्षमता आ जाएगी वे अपने आप ही अपना रास्ता ढूंढ लेंगे।
अब आते हैं ऐसी कौन सी बाते हैं जो मुझे लगती हैं जो मुझे समय के साथ साथ सीखते हुए बदलनी पड़ी। पहली यह कि सिर नीचे करके गधे की तरह मेहनत करते रहो परिणाम अपने आप अच्छे आ जाएंगे। मेहनत वाली बात ठीक थी पर गधे की तरह नहीं। आज के स्पर्धा भरे युग में कोई भी आपको बिना मांगे कुछ नहीं देता। गर आप सोचते हैं कि कम्पनी में मेहनत करते रहें और अच्छी चीजें आपके साथ होती रहेंगी तो आप गलती पर हैं। देवता जैसा आपका मैनजर हो वाली स्थिति को छोड़ कर आपको अपनी उन्नति के लिए स्वयं ही कुछ करना पड़ेगा। तो गर जिंदगी बिगड़ा हुआ बैल है तो इसे सींगों से पकड़कर अपने बस में करो। बैठे रहने से कुछ न होगा। कर्म करो और दिमाग से। दूसरी चीज जिससे अभी भी लड़ना पड़ता है कुछ भी कर के आगे बढ़ने की प्रवृत्ति की जगह सर्वे भवन्ति सुखिनः। आगे बढ़ने के लिए अपने सामने वाले की बर्बादी का मंजर सोचना अजीब लगता है। पर कम्पनियों में ऐसा खूब होता है। आज के जमाने में समाजवादी नीतियों की कम्पनियों कोई जगह नहीं। मरने मारने से डरना व्यर्थ है गर सामने वाला समझदार है तो वह बचेगा नहीं तो उसे धंधें में रहने की जरुरत नहीं।