सुबह की गौरी और ओस की बूंद
कलाम-ए-शुक्ला से एक कविता निकली थी जो कि कहीं कलाम-ए-शुक्ला से एक कविता निकली थी जो कि कहीं में दबी पड़ी है तो हमहुँ सोचे की इस की मिट्टी झाड़ी जाए और नई पैकिंग के साथ पेशे खिदमत की जाए। अनूप बाबू आप की कविता पसंद आई
तुम,
कोहरे के चादर में लिपटी,
किसी गुलाब की पंखुङी पर
अलसाई सी,ठिठकी
ओस की बूंद हो.
नन्हा सूरज ,
तुम्हे बार-बार छूता ,खिलखिलाता है.
मैं,
सहमा सा दूर खङा
हवा के हर झोंके के साथ
तुम्हे गुलाब की छाती पर
कांपते देखता हूं.
अपनी हर धङकन पर
मुझे सिहरन सी होती है
कि कहीं इससे चौंककर
तुम ,
फूल से नीचे न ढुलक जाओ.
नरेन्द्र कोहली ने अपनी मेरे प्रेम की त्रासदियाँ कहानी में अपने दिमाग की तुलना दिल्ली के टेलीफोन एक्सचेंज से की थी की फोन कहीं लगाओ और कनेक्शन कहीं और लग जाता है। मुझे विश्वास है कि दिल्ली टेलीफोन एक्सचेंज तो सही हो गया होगा पर मेरा दिमाग वैसा ही है। अब देखिए न बात शुक्ला जी की कविता की हो रही है और दिमाग में जावेद अख्तर साहिब की तरकश पुस्तक की सुबह की गौरी कविता आ रही है
रात की काली चादर ओढ़े
मुँह को लपेटे
सोई है कब से
रुठ के सबसे
सुबह की गोरी
आँख न खोले
मुँह से न बोले
जब से किसी ने
कर ली है सूरज की चोरी
आओ
चल के सूरज ढूँढे
और न मिले तो
किरन किरन फिर जमा करें हम
और इक सुरज नया बनाएँ
सोई है कब से
रूठ के सबसे
सुबह की गोरी
उसे जगाएँ
उसे मनाएँ
गर आप अख्तर साहिब के साईट पर जाएँ को उनका अपने बारे में पढ़ना न भूलें क्या लिखने का तरीका है और जिंदगी की मुश्किलों को कैसा झेला जाए की प्रेरणा भी सही है।