गर अल्का को भारतीय चिट्ठाकारों की शाहजादी कहा जाए तो शायद कोई अतिश्योक्ति न होगी। हाल ही में उन्होंने अपनी एक बड़ी ही सुन्दर कविता “The Ship” प्रकाशित की। श्रंगार रस के रसिक हम भी पुराने हैं इस लिए पढ़ के काफी आनन्दित हुए और प्रविष्टि अच्छी थी इसलिए टिप्पणियाँ पढ़ना भी लाज़मी था। वहाँ एक दीपक जेसवाल जी ने इसी कविता का हिन्दी अनुवाद कर के दिन बना दिया। अब चूँकि हिन्दी कविता पढ़ने का देवनागरी में अपना ही मज़ा है तो भाई लोगो लीजिए प्रस्तुत है अल्का जी की कविता का दीपक जेसवाल द्वारा किया गया अनुवाद

बाहों के उसके दायरे में

लगती हूँ, ज्यूँ सीप[1] मोती सीप में

कश्ती को साहिल मिल गया हो जैसे

मैं सीमित उसके सीने से ऐसे

सुनती हूँ उसकी धड़कन, रेश्म मुलायम

कभी स्थिर, कभी सशक्त पर सदा कायम

चेहरा उठाती हूँ चूम लेने के लिए

इक आवाज गूँजती है कानों के लिए

क्यूँ भूल गई के कश्ती कभी ठहरी नहीं

बहते रहना उसकी मंजिल है, रुकना नहीं।

नादान खुद को इतना मैं कर बैठी

धारा को किनारा ही समझ बैठी,

फिर उठाती हूँ अपनी बेबस निगाहें

बड़ा के थर्राते होठों के अंगारे

दीपक जी का एक और चिट्ठा “गीत दिल से” न देखना भूलें। यह उनका हिन्दी फिल्म सरीखे गीत लिखने का प्रयास है। और जाने से पहले सभी बोलें “इंटरनेट बाबा की जय” जिन की वजह से ऐसा सब हो सकना संभव हो पाया।

[1] पहली सीप कटी क्यूँ हूई है के लिए टिप्पणियाँ पढ़ें